A Ghazal by Ghalib



गालिब की एक गजल

मिर्जा असदुल्‍लाह खॉं गालिब को जब भी पढ़ें दिल को एक सुकून सा पहुंचता है और साथ में यदि जगजीत सिंह की आवाज हो तो क्‍या कहने........सुनिए कानों में मिश्री घोलती हुई जगजीत सिंह की मखमली आवाज में गालिब की ये गजल-

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाहिश पे दम निकले,

बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।


निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन,

बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले ।


मुहब्बत में नही है फर्क जीने और मरने का,

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले ।


ख़ुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा ज़ालिम,

कहीं ऐसा ना हो यां भी वही काफिर सनम निकले ।


क़हाँ मैखाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़,

पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले।

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